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तेरी खुशबू में लिपटे हुए खत

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 तेरी खुशबू में  लिपटे हुए कुछ खत गदगद हुए जाते हैं रखे हुए दराज में, तेरी ख़ामोशी में  बिखरे हुए लिहाफ अब भी सिसकते हैं घर के किसी कोने में चुप सी आवाज़ में, तेरे मखमूर से  बदन की मादक मुश्क लिए मेरी कमीज़ अब भी टंगी है किंवाड़ के पीछे, तेरे लरज़ते हुए सुर्ख होंठो का एहसास लिए हुए एक तौलिया अब भी गुमान करता है अपने हुसूल-ओ-कामरानी पे, तेरे गेसुओं का स्याह संदलापन लिए वो तकिए खूब गुरुर करते हैं तेरे बदन के छुअन की कामयाबी पर, हमारे लम्स की मदमस्त आहों की  गवाह दीवारें खुद को कमजर्फ कहते हुए तुझे ढूंढती हैं ऐसे दौर - ए -खलवत में मेरे फजूल चुटकुलों पे  तेरे कहकहों की आवाज लिए क्या क्या बाते गढ़ते हैं घर के कमरे सारे, और तेरी कुरबतों की उल्फतों का अथाह दरिया लिए खुदी बहती रहती है किसी बवंडर में.......!!

अतीत के चितकबरे पन्ने

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इन बारह सालों में शायद उसको एक दो बार ही बोलते देखा था, हां बस शाम को बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ते वक्त उसके होंठो का हिलना समझ आता था शायद करीब से सुनती तो उसका बुदबुदाना जरूर समझ आता, वैसे उसकी उम्र तो लगभग 40 की ही होगी लेकिन आंखों से झलकता इन्तजार सैकड़ो साल पुरानी कोई हीर-रांझा, लैला-मजनू, और सीरी-फरहाद जैसी प्रेम कहानी बयाँ करता था ।          कभी कभी तो दिल करता था कि उसे खामोशी की गहरी नींद से जगाकर उसकी चिरकाल से चली आ रही चुप्पी की वजह पुछु, लेकिन फिर लगता था कि ना जाने क्या समझेगा वो मेरे बारे में क्या सोचेगा, वैसे भी आज के वक्त में इतना आसान नहीं होता एक विधवा होकर किसी गैर मर्द से ज्यादा बात करना, वो भी किसी ऐसे मर्द से जो कि रहता भी अकेला हो ऊपर से मुझे भी मेरे माँ-बाप की इज्जत का भी तो डर था, इस छोटे शहर में लोग तिल का ताड़ बनाते देर नहीं लगाते ।             मोहल्ले में लोग उसके बारे में बहुत सारी कहानियां बनाते थे, वो पड़ोस वाली पूनम तो बोलती थी कि ये जरूर नामर्द होगा और इसकी बीवी इसे छोड़कर किसी गैर मर्द के साथ भा...

जुबान खामोश हो जाती है

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जुबान खामोश हो जाती है मेरी हलक सूखने लगता है जब भी तेरी जुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!! आजिज मेरा वजूद महसूस होता है विचारों में अंधड़ सा आ जाता है, जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है…….!!!! फीका-फीका सा मुझको आफ़ताब नजर आता है मेरी आदमियत बदल जाती है जब भी तेरी जुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!! इकबाल से ऐतबार उठ जाता है इज्तिरार सी रूह में उमड़ पड़ती है जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!! उरियाँ सी मेरी शख्सियत नजर आती है उजाड़ सा ये जहाँ लगने लगता है जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……….!!!!! कजा खुद का कत्ल करता है क़फ़स सा ये जहाँ महसूस होता है, जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!!! खुदी खुद में चूर हो जाती है खलिश तेरी, खियाबाँ में महसूस होती है जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!!!