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अतीत के चितकबरे पन्ने

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इन बारह सालों में शायद उसको एक दो बार ही बोलते देखा था, हां बस शाम को बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ते वक्त उसके होंठो का हिलना समझ आता था शायद करीब से सुनती तो उसका बुदबुदाना जरूर समझ आता, वैसे उसकी उम्र तो लगभग 40 की ही होगी लेकिन आंखों से झलकता इन्तजार सैकड़ो साल पुरानी कोई हीर-रांझा, लैला-मजनू, और सीरी-फरहाद जैसी प्रेम कहानी बयाँ करता था ।          कभी कभी तो दिल करता था कि उसे खामोशी की गहरी नींद से जगाकर उसकी चिरकाल से चली आ रही चुप्पी की वजह पुछु, लेकिन फिर लगता था कि ना जाने क्या समझेगा वो मेरे बारे में क्या सोचेगा, वैसे भी आज के वक्त में इतना आसान नहीं होता एक विधवा होकर किसी गैर मर्द से ज्यादा बात करना, वो भी किसी ऐसे मर्द से जो कि रहता भी अकेला हो ऊपर से मुझे भी मेरे माँ-बाप की इज्जत का भी तो डर था, इस छोटे शहर में लोग तिल का ताड़ बनाते देर नहीं लगाते ।             मोहल्ले में लोग उसके बारे में बहुत सारी कहानियां बनाते थे, वो पड़ोस वाली पूनम तो बोलती थी कि ये जरूर नामर्द होगा और इसकी बीवी इसे छोड़कर किसी गैर मर्द के साथ भा...

कलंकी बेटा

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   वैसे तो अमित हम सबसे बिलकुल भी अलग नहीं था, सिवाय इसके की वो बिन बाप का एक गरीब बेटा था, और प्रकृति की इस क्रूर नियत को हमारे गाँव के लोग समझते हुए भी नासमझी करते थे, और तरह - तरह की बातें करते थे ।          कितनी बार् मैंने खुद के ही घर में उसकी मां के खिलाफ गैर मर्दों से नाजायज सम्बन्ध रखने की बात सुनी होगी, लेकिन बचपन में इन चीजों का खासा मतलब नहीं पता होता था, तो जब भी सुना बेमतलब की बात समझ कर भूल गया ।          बेशक मैंने घरवालों से कयी बार डाँट खायी होगी की अमित के साथ मत खेला कर, वो ऐसा है उसकी माँ वैसी है, समाज में नाक कटती है हमारी, लेकिन मैं भी सब कुछ सुनता और भूल जाता, और मौका मिलते ही हम गाँव के मंदिर वाले मैदान में पहुँच जाते, और फिर होने दो कुश्ती तो कभी कबड्डी ।            खैर बचपन के दिन भी गली-मोहल्ले में कभी गुल्ली-डन्डा तो कभी लुका-छुपी खेलते हुए गुजर गए, वक्त बदलता रहा, हमारी उम्र के साथ-साथ ह...