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मैं ही ओंकार हूँ......!!

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मैं शूर हूँ मैं वीर हूँ मैं साहसों का धीर हूँ मैं वक़्त की पुकार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ............१ मैं सत्य से डिगूँ नहीँ वैरी को भी छलूँ नहीँ, हर युद्ध का मैं सार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ.............२ मैं द्वन्द में विजयी हूँ हर पाश में अजेय हूँ मैं शक्ति का आकार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ............३ मैं आग से जलूँ नहीँ मैं शस्त्र से कटू नहीँ हर विघ्न का अंधकार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ...........४ कोई मोह-पाश है नहीँ कोई द्वेष-भाव है नहीँ मैं ऊर्जा का संचार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ...........५ कोई भय मुझे लगे नहीँ कोई क्षय मुझे छुये नहीँ मैं विकार का विकार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ............६ मैं पाप पर नकेल हूँ निष्पाप का मैं खेल हूँ मैं सिंह की दहाड़ हूँ हां... मैं ओंकार हूँ............७ मैं पापियों का नाश हूँ हर पुण्य की मैं आस हूँ मैं श्रष्टि का संहार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ............८ मैं राग हूँ - विराग हूँ दहकती एक आग हूँ मैं खुद में सर्वकार हूँ हां... मैं ओंकार हूँ.............९ मैं ज्ञान हूँ विज्ञान हूँ मैं वेद और पुराण...

अँधेरी होती जा रही है दीपावली.......!!

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दीपावली कहें या दीवाली कोई फर्क नहीँ पड़ता, फर्क पड़ता है तो इसको मनाने के तरीके से। आज के समाज में हर त्योहार का स्वरूप इतना बदल चुका है कि वो त्यौहार अपनी असली छाप लगभग खो चुका है। मेरे ख़्याल से दीपावली दीपकों व दीयों का त्योहार है न कि विदेशी झालरों, लड़ियों व एलेक्ट्रोनिक रँग-बिरंगे बल्ब्स का,  लेकिन अधुनिकता व सम्पन्नता के दिखावे की होड़ में हम ये सब भूल चुके हैं। हम भूल चुके हैं कि इस होड़ में हमने रोशनी के त्योहार से रोशनी ही मिटा दी है - " बुझ रहे हैं हक़ीक़तों के दिये रोशनी खोती जा रही है दिवाली, बढ़ रहे हैं दिखावट के ताने-बाने औरअंधी होती जा रही है रौशनी......!!" हम भूल चुके हैं कि हमारे पूर्वज लाखो-करोड़ों वर्षों से ये त्योहार सिर्फ नेचुरल तेल व मिट्टी के दीपको के खूबसूरत सफर के साथ मनाते आये हैँ। हमें चाहिये कि हम दूसरों का साथ न देकर अपने देश व देशवासियों का साथ दें, विदेशियों को रोजगार व धन की मदद न कर के अपने देशवासियों के लिये रोजगार व आमदनी बढ़ाएं अर्थात विदेशी को त्याग कर स्वदेशी अपनायें। कुछ लोग तो ऐसे भी हैँ की जिन्हें खुद को ये झालर व लड़ियाँ ...

मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ......!!

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कड़ी तपस्या में लीन हो मैं वो शक्ति पाना चाहता हूँ, खोल कर तीसरी आँख सारी दुनिया को मिटाना चाहता हूँ, मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ.....१ ये धर्म के टण्टे ये जातियों का घटियापन, मानसिक मलीनता और सोच का छिछलापन, ये सारी की सारी  बुराइयां मिटाना चाहता हूँ मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ.....२ ये सत्ता का मद ये विरोध का घिनौनापन, ये ताकत का घमण्ड और पदवी का विषैलापन, ये सारी की सारी दास्ताँ भुलाना चाहता हूँ मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ....३ ये अमीरों का रवैया गरीबों का शोषण, ये भूखी तड़पती गरीबी और बच्चों का कुपोषण, ये घटिया दृश्य मैं बिल्कुल भुलाना चाहता हूं मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ.....४ ये झुठी सी भक्ति और हिंसा का प्रहार, ये कुटिल सी संस्क्रति और विक्षिप्त संस्कार, ये सारे के सारे मैं जड़ से मिटाना चाहता हूँ मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ....५ ये जलती हुयी आत्मायें और गिद्धों से नुचती हुयी लाशें, ये भूख से बिलखता बचपन और नशे में धुत्त बाप की फ़रमाइशें, मैं इन चीखते मंजरों का एक अंत पाना चाहता हूँ मैं महादेव हो जाना चाहता हूँ.......६ ...

नन्हीं चिड़िया की याद सताती है

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गर्मी के मौसम में जब-जब  शहर की तीखी धूप मुझे अखरती है, सड़कों से उगलती गर्मी और पक्के कमरों की दीवार भभकती है, तब गर्म छतों पर रहने वाली उस नन्हीं चिड़िया की याद सताती है...........१ चिलचिलाती धूप की चादर मेरे सर को जब छू कर जाती है, गर्म हवा, लू और लपट के थपेड़ो से रँगत मुरझा जाती है, तब पल भर की छाँव को तरसने वाली उस नन्हीं चिड़िया की याद सताती है............२ जब पी-पी क़र पानी दिन भर भी प्यास नहीँ बुझ पाती है, कदम-दो-कदम चलते ही मिट्टी में सारी ताक़त मिल जाती है, तब बूँद-बूँद को तरसने वाली उस नन्हीं चिड़िया की याद आती है..........३ जब कड़क धूप की किरणें मेरे बदन को सहला जाती हैँ, मन पागल सा हो जाता है मानो सारी खुशियाँ पिघल जाती हैं, तब गर्म आसमाँ में उड़ने वाली उस नन्हीं चिड़िया की याद सताती है.........४ गर्म हवा के अन्धड़ से गुजर कोई अपना जब घर को आता है, देख के कुम्हलाया हुआ चेहरा दिल मौसम को कितनी दुत्कार लगाता है, ऐसे में कोमल पँखो वाली उस नन्हीं चिड़िया की याद सताती है.........५ गर्मी को दोपहरों में जब बाहर निकलना पड़ जाता है, दिल चीखें कितनी ...

मैं आवारा हूँ

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फ़िज़ाओं ये बन्दिशें न लगाओ मुझ पर, मैं आवारा हूँ हर गिरफ्त छोड़ जाउँगा.........१ हवाओं न इस तरह इतराओ ख़ुद पर, मैं आज़ाद पँछी हूँ तेरी जद से तेज उड़ जाउँगा.......२ बादलोँ यूँ गरज़ कर न डराओ मुझे, मैं बंजर ज़मीन हूँ हर बूँद निगल जाऊँगा.............३ पहाड़ों न ऊँचाइयों का ख़ौफ़ कराओ मुझको, मैं बाज हूँ तुझसे ऊँचा उड़कर निकल जाऊँगा.........४ दरियाओं न गहराई का मुझको वास्ता देना, मैं साग़र हूँ तुझे ख़ुद के अन्दर समा जाऊँगा..........५ तमाम दौलतों की मुझे रिश्वतें मत देना, मैं फ़क़ीर हूँ हर ख़ज़ाने से मुँह मोड़ जाऊँगा.............६ न इश्क़ - न हुस्न की तलब मुझमेँ रह गयी है, मैं बेख्याल हूँ तुझको कर बेहाल छोड़ जाऊँगा...........७ न महलों की ख़्वाहिश न रेशम की ही जरूरत है, मैं बंजारा हूँ फटे-हाल हो आसमाँ को छत बनाऊँगा........८ न लोगोँ की न शहरों की ही लज़्ज़त है मुझको, मैं रिन्द हूँ मयख़ाने में ही हद से गुज़र जाऊँगा............९ न जीने - न मरने की दास्ताँ सुनाओ तुम, मैं इश्क़ से गुजरा हूँ हर ज़हर निग़ल जाऊँगा..............१०

कोई और भी है तेरा

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कोई और भी है जो तेरे करीब रहता है शायद, आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम मुझसे दूरियाँ बढ़ा रहे होे.....1 कोई और भी है जो तेरा ख्याल रखता है शायद, आखिर यूँ ही तो नहीँ तो बेख्याल होते जा रहे हो......2 कोई और भी है जो तुझसे वफ़ा कर रहा है शायद, आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम बेवफा होते जा रहे हो.......3 कोई और भी है जो तेरे हुस्न का मुरीद है शायद, आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम बेफिकर होते जा रहे हो......4 कोई और भी है जो तुझे याद करता है हरदम आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम मुझको भुला रहे हो.........5 कोई और भी है जो तुझे बेइंतेहा चाहता है शायद, आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम मेरी चाहतें भुला रहे हो......6 कोई और भी है जो तेरे ख़्वाबों में बस रहा है आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम मुझे रक़ीब बुला रहे हो.......7 कोई और भी है जो तेरी साँसों में महक रहा है आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम बहकते जा रहे हो..........8 कोई और भी है जो तेरी नज़रों में रहने लगा है आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम मुझसे नजरें फिरा रहे हो.....9 कोई और भी है जो तुझको अपना सा लग रहा है, आखिर यूँ ही तो नहीँ तुम गैर होते जा रहे हो........10

अतीत के चितकबरे पन्ने

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इन बारह सालों में शायद उसको एक दो बार ही बोलते देखा था, हां बस शाम को बरामदे में बैठकर अखबार पढ़ते वक्त उसके होंठो का हिलना समझ आता था शायद करीब से सुनती तो उसका बुदबुदाना जरूर समझ आता, वैसे उसकी उम्र तो लगभग 40 की ही होगी लेकिन आंखों से झलकता इन्तजार सैकड़ो साल पुरानी कोई हीर-रांझा, लैला-मजनू, और सीरी-फरहाद जैसी प्रेम कहानी बयाँ करता था ।          कभी कभी तो दिल करता था कि उसे खामोशी की गहरी नींद से जगाकर उसकी चिरकाल से चली आ रही चुप्पी की वजह पुछु, लेकिन फिर लगता था कि ना जाने क्या समझेगा वो मेरे बारे में क्या सोचेगा, वैसे भी आज के वक्त में इतना आसान नहीं होता एक विधवा होकर किसी गैर मर्द से ज्यादा बात करना, वो भी किसी ऐसे मर्द से जो कि रहता भी अकेला हो ऊपर से मुझे भी मेरे माँ-बाप की इज्जत का भी तो डर था, इस छोटे शहर में लोग तिल का ताड़ बनाते देर नहीं लगाते ।             मोहल्ले में लोग उसके बारे में बहुत सारी कहानियां बनाते थे, वो पड़ोस वाली पूनम तो बोलती थी कि ये जरूर नामर्द होगा और इसकी बीवी इसे छोड़कर किसी गैर मर्द के साथ भा...

जुबान खामोश हो जाती है

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जुबान खामोश हो जाती है मेरी हलक सूखने लगता है जब भी तेरी जुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!! आजिज मेरा वजूद महसूस होता है विचारों में अंधड़ सा आ जाता है, जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है…….!!!! फीका-फीका सा मुझको आफ़ताब नजर आता है मेरी आदमियत बदल जाती है जब भी तेरी जुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!! इकबाल से ऐतबार उठ जाता है इज्तिरार सी रूह में उमड़ पड़ती है जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!! उरियाँ सी मेरी शख्सियत नजर आती है उजाड़ सा ये जहाँ लगने लगता है जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……….!!!!! कजा खुद का कत्ल करता है क़फ़स सा ये जहाँ महसूस होता है, जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!!! खुदी खुद में चूर हो जाती है खलिश तेरी, खियाबाँ में महसूस होती है जब भी तेरी ज़ुबान पे नाम उस गैर का आता है……..!!!!!!

ऐसा भी होता है

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लो अब यहाँ ऐसा भी होता है जागती है हैवानियत इन्सान मग़र बेफिक्र हो सोता है…….! झुक जाते हैं महफ़िल के तमाम चेहरे खुद-ब-खुद, जिक्र इन्सानियत का जहाँ होता है लो अब यहाँ ऐसा भी होता है…….!! आ जाते हैं परिन्दे खुद ही से जिन्दा लाश को नोचने कत्ल इन्सानियत का जहाँ होता है लो अब यहाँ ऐसा भी होता है…….!!! टूटकर बिखर जाते हैं खुद-ब-खुद दिल के अरमान सारे कोख में बेटी का जीवन खत्म होता है लो, अब यहाँ ऐसा भी होता है…….!!!! चन्द कागज के टुकड़ों के लालच में कितनी बहुओं का जिस्म जिन्दा सुलग जाता है लो, अब यहाँ ऐसा भी होता है……..!!!!! गैरों पे क्या भरोसा, विश्वास क्या डर तो भाई को भाई से होता है जब घात पर घात हर घात पर प्रतिघात होता है लो, अब यहाँ ऐसा भी होता है………!!!!!! मर्म दिल का नहीं जानते अपनों के अब सगा तो बस अच्छे हालात वाला होता है लो, अब यहाँ ऐसा भी होता है…….!!!!!! दिन भर में कितने झूठ हम बोलते हैं सबसे कितनो का सोचना किसी की बरबादी से खत्म होता है लो अब यहाँ ऐसा भी होता है………!!!!!!!

वो तुम ही तो हो........👰👰

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इस जहाँ को भूलकर खुद को खुद में समेटकर अपनी इच्छाओं को बटोरकर अपने अंतर्मन को टटोलकर मेरी रूह जो चाहत भरा गीत गाती है वो गीत तुम ही तो हो…….! यादों में खोकर सर्द मौसम में गर्म सांसों की तपिश से मदहोश खोकर वो गुजरे हुये लम्हों की चादर ओढ़कर तेरे लबों से निकले हर अल्फाज को बेतहाशा चूमकर जो आशा मुझे खुद में वापस लाती है वो मनमीत तुम ही तो हो…….!! तुझ से चाँद की आश में सूरज की लाली को छोड़कर तुझे पाने को इस सारे जहाँ से मुँह मोड़कर तेरे आगोश में आने को ये महफ़िल-ओ-रुआब से सदा के लिये नाता तोड़कर जो चाह मुझे खीँच ले जाती है वो गम-ओ-गुसार तुम ही तो हो…….!!! जहाँ की शर्म-ओ-हया को छोड़कर जिसके ख्याल में मशगूल हूँ मुफलिसी में भी दिन कई गुजारकर जिसके इश्क की पनाह का कायल हूँ वो जानशीं मेरा हमसफ़र मेरे ख्यालो की आराइश तुम ही तो हो…..!!!!

ये तो याद होगा तुम्हें

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गाँव की कच्ची सड़क के किनारे वाले तालाब के पास छोटे बाग में जितने भी पेंड़ थे सभी परेशान हैं मैं कल उनसे मिला था, बहुत बातें की हमने उनकी भी सुनी खुद की भी सुनायी तुम कैसे दूर चली गयी इस बात से सभी हैरान थे…….! वो विशाल महुआ का पेंड़ याद है न जिसके नीचे हम घण्टों बैठे रहते थे सिर्फ इस इन्तजार में कि कब कोई महुआ गिरे और हम उसको जमीन पर गिरने से पहले पकड़ लें वो अब सूखने लगा है……..!! और वो जामुन का पेंड़ जिसके किनारे छोटी सी खाई थी, तुम जामुन लेकर उस खाई में बैठ जाती थी और वहाँ से मुझे जूठी गुठलियाँ फेक-फेक कर मारा करती थी, अब वो जामुन कोई नहीँ खाता सब कहते हैं उसमें वो मिठास नहीँ रही……!!! और वो पीपल का पेंड़ अच्छा ठीक है, तुम ही सही तुम्हारा वो दिल के पत्तों वाला पेंड़ वो भी पूछ रहा था फिर कब आओगे वही खेल खेलने जिसमें पीपल के पत्ते से तुम दो दिल बनाती थी एक अपना और एक मेरा बताती थी और फिर उसे उसके ही कोटर में अपने बालों से बांधकर रख जाती थी कि हम कभी अलग नहीँ होँगे वो भी अकेलेपन से तड़प रहा है...

तू हर वक्त याद आया

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आँखों में आंसू और लबों पे उनका ही नाम आया होगा, बज्म-ए-यार से जब भी  कभी हमको बुलाया होगा……! हर अन्जुमन का अन्जाम हर बार एक ही आया होगा, मैं उसे ढूंढता रहा और वो किसी गैर के आगोश में समाया होगा....!! जबकि मेरे हर अज़ाब का अंदाजा उसने भी लगाया होगा, जरा ठिठका होगा, मग़र, दौलत की चकाचौन्ध ने फिर कहीँ मुझको भुलाया होगा…….!!! इल्म नहीं मुझको, ख़ुद को मेरे लिए क्यों अश्क़िया बनाया होगा, तमाम असफारात-ओ-इश्क से रूबरू हैं वो आखिर मुझमे उन्हें, कोई अस्काम नजर आया होगा…..!!!! देखकर तुझको ख्याल खानुम का मेरे जहन में उतर आया होगा, अफ़सोस मग़र देख गैर होता हुआ तुझको, गिरया फरमाया होगा…..!!!!! अब तलक इल्म है मुझको, तेरे शहर की आबो-हवा का, मत कहना कि मेरा इश्क बेचते हुये, तेरे ख्याल में मेरा अक्स ना आया होगा…..!!!!!! नीलाम होते हुए देखे हैं, कितने चश्म-ओ-चराग इस जहाँ में, यकीन है मुझको, ये जफ़ा करते हुये, एक बार तुझे लुटेरा याद तो आया होगा……!!!!!!!