कलंकी बेटा



   वैसे तो अमित हम सबसे बिलकुल भी अलग नहीं था, सिवाय इसके की वो बिन बाप का एक गरीब बेटा था, और प्रकृति की इस क्रूर नियत को हमारे गाँव के लोग समझते हुए भी नासमझी करते थे, और तरह - तरह की बातें करते थे ।
         कितनी बार् मैंने खुद के ही घर में उसकी मां के खिलाफ गैर मर्दों से नाजायज सम्बन्ध रखने की बात सुनी होगी, लेकिन बचपन में इन चीजों का खासा मतलब नहीं पता होता था, तो जब भी सुना बेमतलब की बात समझ कर भूल गया ।
         बेशक मैंने घरवालों से कयी बार डाँट खायी होगी की अमित के साथ मत खेला कर, वो ऐसा है उसकी माँ वैसी है, समाज में नाक कटती है हमारी, लेकिन मैं भी सब कुछ सुनता और भूल जाता, और मौका मिलते ही हम गाँव के मंदिर वाले मैदान में पहुँच जाते, और फिर होने दो कुश्ती तो कभी कबड्डी ।
           खैर बचपन के दिन भी गली-मोहल्ले में कभी गुल्ली-डन्डा तो कभी लुका-छुपी खेलते हुए गुजर गए, वक्त बदलता रहा, हमारी उम्र के साथ-साथ हमारे खर्चे, जरूरतें, समाज में रुतबा, भी बढ़ता गया ।
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            क्योंकि मैं संभ्रांत परिवार से था, संपन्न था इसलिए मुझे आगे की पढ़ाई के लिए गाँव से बाहर भेज दिया गया, वैसे पढ़ने में अमित भी बुरा नहीं था लेकिन पारिवारिक स्थिति ठीक न होने के कारण उसने पढ़ाई छोड़कर गाँव में खेती करने का फैसला लिया ।
          पढ़ाई खत्म होने के बाद मैं भी अपने काम काज में लग गया, पारिवारिक व्यवसाय अब लगभग मेरी ही जिम्मेदारी हो गया था, कुछ एक घरानों से शादी के रिश्ते भी आने लगे थे, खैर अभी तक कोई भी रिश्ता पक्का नहीं हुआ था ।
         दिन अच्छे गुजर रहे थे, कभी- कभी गाँव जाकर अमित से मिल जुल कर आता, जब भी जाता उसके लिए और सरला चाची के लिए उपहार स्वरूप कपड़े-मिठाइयाँ वगैरह लेकर जाता, वो लोग काफी शान-सेखी वाले थे, उन्हें मेरा कुछ लाना पसंद तो नहीं था, लेकिन मैं उनकी सुनता ही नहीं था ।
          मैंने कितनी बार अमित को बोला की मेरे साथ शहर चले, मेरे काम में हाँथ बंटाए, लेकिन वो बेहद सम्मान पसंद इंसान था, उसे मेहनत करना पसन्द था लेकिन ख़ाली बैठकर अपने दोस्त की कमाई खाना गंवारा नहीँ ।
          सरला चाची भी अब बूढी हो चुकी थी, अब वो जल्द से जल्द अपने जाति-बिरादरी की कोई सुशील और सभ्य लड़की देखकर उसकी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहती थीं।
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           शायद मार्च की बात है क्योंकि होली नजदीक ही थी, मैंने सोचा चलो गाँव हो आता हूँ, मैं जल्दी में कुछ कपड़े एक बैग में डालकर बाहर निकला की रास्ते से कुछ खरीद कर सबके लिए लेता जाऊँगा, मैंने हर किसी के लिए कुछ न कुछ खरीद लिया था सिवाय अमित के, क्योंकि इस बार मैं कई महीनों बाद जा रहा था तो कुछ अच्छा लेकर जाना चाहता था, तभी शोरूम के शू-केस में रखे काले चमड़े के जूतों पर मेरी नजर गयी, बहुत पसंद आये मैंने दो जोड़े ले लिए, अपने और अमित के लिए, सारा सामान गाडी में डालकर, मैं बैठ गया और ड्राइवर को चलने के लिये बोला ।
           मैंने सिगरेट पीने के लिए window glasses नीचे कर लिए थे, क्योंकि घर पहुंचकर छुप छुपाकर सिगरेट पीने का मौका पता नहीं कब मिले, मैं गाँव के काफी नजदीक पहुँच चूका था, गाँव से 7-8 किलोमीटर दूर वाले शोभन मंदिर के पास, तभी मैंने देखा की पुलिस की एक जीप चली आ रही है, मैंने ठीक से तो नहीं देखा की उसमें कौन था लेकिन हल्की फुल्की झलक से मुझे पता नहीं क्यों उसमें अमित के बैठे होने का अंदेशा हुआ।
           ना जाने क्यों किसी अनजान अनहोनी से मेरा मन व्याकुल हो उठा, गला रुन्दा जा रहा था, प्यास बढ़ने लगी, मैं मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था की काश ये मेरा धोखा हो, उसमें अमित न हो, फिर भी गाँव में घुसते ही मैं आने घर ना जाकर अमित के घर की तरफ गाडी से उतरते ही दौड़ पड़ा ।
              गाँव के लगभग छोटे-बड़े सभी लोग, औरतें, बच्चे और बुजुर्ग वहाँ जमा हुए थे, इतनी भीड़ देखकर मेरी नशों में खून पिघलने सा लगा था, दिल बैठा जा रहा था, तमाम लोगों की भीड़ को चीरते हुए, उनके अजब-गजब उपहास भरे भावों की नजरों से बिधते हुए जब मैं अमित के चबूतरे पर पहुंचा, तो वहाँ का माहौल देखकर मेरा दिल धक् से रह गया ।
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          साँसे जैसे ठीक से अपना काम करने को तैयार नहीं थीँ, वहाँ का हमेशा से बिलकुल अलग मंजर देखकर।
            चबूतरे पर पड़ी खून से लथपथ वो किसी अधेड़ उम्र व्यक्ति की लाश , जिसका एक हाँथ शरीर से कटकर बिलकुल अलग हो चूका था, देखने से ही लग रहा था कि इस पर किसी धारदार चीज से कुछ ही क्षणों में जैसे सैकड़ों वार किए गए हों, और उससे कुछ ही दूरी पर बेसुध सी रोती हुई सरला चाची यानि की अमित की माँ ।
        सारी इच्छाशक्ति बटोरकर खुद की जिम्मेदारी को समझते हुए मैं सरला चाची की तरफ बढ़ा ही था, की अचानक से बचपन के ही एक दोस्त मिन्टू की आवाज आयी, वो मुझे बुला रहा था ।
         मैंने भी सारी स्थिति को समझने और जानने का उससे अच्छा कोई साधन न मिलते हुए जानकर तुरन्त उसके पास आ गया, उसने तो जो कुछ बताया मुझे, उससे तो मेरी आँखें फ़टी की फटी रह गईं, मुझे पता लगा -
                वो लाश अमित के पापा की थी, जो की शादी के बाद ही उसकी मां को गर्भवती और बेसहारा छोड़कर किसी और औरत के साथ रहने चले गए थे, बेचारी किस्मत की मारी दुखियारी अमित की माँ अपने गाँव लौट आयी और लगभग बूढी हो चुकी थी अपने पति के इंतजार मेँ लेकिन वो ना आये । और 2 दिन पहले यहाँ आये थे तो इसलिए की उनके नाम पर जो थोड़ी बहुत जमीन है वो बेचकर उसके पैसे अपनी दूसरी बीवी के शौक पुरे करने के लिए, बस इसी बात पर कहा सुनी हो गयी, और उन्होंने अमित की माँ को मारा पीटा ।
         पूरी उम्र बीत गयी उस शख्स ने कभी बच्चे और बीवी की सुध नहीं ली, कभी एक खोटे सिक्के की जरूरत पूरी न की, आज लौट कर आया भी तो एक दानव की तरह, किसी भूखे भेड़िये की तरह, अपनी माँ को पिटता देख कर वो भी उस शख्स के हाँथो जिसकी वजह से उसने और उसकी माँ ने बदचलन और बदजात जैसे कलंकी शब्द पूरी जिंदगी सुने, शायद यही सब सोचकर अमित को गुस्सा आया होगा, और उसने पास ही पड़ी लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी उठाकर बचपन से लेकर अब तक के अपने और अपनी माँ के सारे जख्मों का हिसाब बराबर कर लिया ।
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         आज इस घटना को लगभग दो साल हो चुके हैं, अमित का केस मेरे जान पहचान के एक अच्छे वकील की पैरवी में चल रहा है, आवर जेल में उसका आचरण अच्छा हीने के कारण सरकार से उसकी सजा की कटौती की दरखास्त भी की है, बस दुःख है तो इस बात का  है , की सरला चाची अमित को सजा हो जाने के गम में घुट घुट कर जी रही थीं ।
      आखिर थी तो वो भारतीय नारी ही न, बेशक बुरे थे या जैसे भी थे  लेकिन उनके पति थे, उन्हें उनके मरने का भी गम खाये जा रहा था भीतर् ही भीतर लेकिन हमेशा की तरह वो किसी से कुछ ना कहते हुए, तमाम आंसुओ को आँखों की कोरों में दबाये हुए सदा के लिए चिर निद्रा में विलीन हो गयी थीं ।।।।।
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