अँधेरी होती जा रही है दीपावली.......!!



दीपावली कहें या दीवाली कोई फर्क नहीँ पड़ता, फर्क पड़ता है तो इसको मनाने के तरीके से। आज के समाज में हर त्योहार का स्वरूप इतना बदल चुका है कि वो त्यौहार अपनी असली छाप लगभग खो चुका है।

मेरे ख़्याल से दीपावली दीपकों व दीयों का त्योहार है न कि विदेशी झालरों, लड़ियों व एलेक्ट्रोनिक रँग-बिरंगे बल्ब्स का,  लेकिन अधुनिकता व सम्पन्नता के दिखावे की होड़ में हम ये सब भूल चुके हैं।

हम भूल चुके हैं कि इस होड़ में हमने रोशनी के त्योहार से रोशनी ही मिटा दी है -

" बुझ रहे हैं हक़ीक़तों के दिये
रोशनी खोती जा रही है दिवाली,

बढ़ रहे हैं दिखावट के ताने-बाने
औरअंधी होती जा रही है रौशनी......!!"

हम भूल चुके हैं कि हमारे पूर्वज लाखो-करोड़ों वर्षों से ये त्योहार सिर्फ नेचुरल तेल व मिट्टी के दीपको के खूबसूरत सफर के साथ मनाते आये हैँ।

हमें चाहिये कि हम दूसरों का साथ न देकर अपने देश व देशवासियों का साथ दें, विदेशियों को रोजगार व धन की मदद न कर के अपने देशवासियों के लिये रोजगार व आमदनी बढ़ाएं
अर्थात विदेशी को त्याग कर स्वदेशी अपनायें।

कुछ लोग तो ऐसे भी हैँ की जिन्हें खुद को ये झालर व लड़ियाँ पसन्द नहीँ है, लेकिन क्योंकि उनके पड़ोस वाले गुप्ता जी ( जो कि मोहल्ले के बड़े आदमी माने जाते हैँ) ने झालर लगायी है इसलिये लगाएंगे, और दूसरे से खुद को छोटा नहीँ दिखाना चाहते हैं इसलिये वो मिट्टी के दीपक पसन्द करते हुये भी इलेक्ट्रॉनिक झालर लगायेंगे, जिससे कि समाज में उनका रुतबा गुप्ता जी से जरा भी कम न हो।

मुझे समझ ये नहीँ आता कि सम्पन्नता की किताब के किस चरण में लिखा है कि सारा रुतबा सिर्फ इन झालरों के दिखावे से ही बन जायेगा, समाज में त्यौहार की वास्तविकता व असलियत (मिट्टी के दीपक) का कोई महत्व नहीँ इसे नजरन्दाज कर देना ही उचित है।

हमने तमाम पैसे खर्च कर के ये झालरें खरीद कर लटका तो ली हैँ दीवारों पर जो कि जगमग करती हुयी हमारी सम्पन्नता के दिखावे के कसीदे पढ़ रही होती हैं लेकिन हमारी आत्मा हमें उन गरीब देशवासियों की दिवाली को अंधेरे से भरने के लिये माफ नहीँ करेगी, जिनकी ज़िन्दगी की दिवाली सिर्फ उन मिट्टी के दीपकों को मेहनत से बनाकर बेचने के बाद चार पैसों से रोशन हुआ करती है।

हमारी आधुनिकता व सम्पन्नता के दिखावे ने त्योहारों से मिठास, रोशनी व आपसी भाईचारा तो खोया ही है साथ ही साथ किसी गरीब के जीवन की रोशनी भी छीन ली है ।

क्या  उनके लिये हमें कुछ भी नहीं करना चाहिये या हमें उनको उनके बुरे हाल पर छोड़ देना चाहिये क्योंकि वो दीपक बनाते हैं और सामाजिक स्तर पर पैसे को देखते हुये छोटे ओहदे के लोग हैं।

अरे साहब, छोड़िये..... छोड़िये ये दिखावे की रौशनी जो गरीब देशवासियों के घर के चिराग तक बुझा रही है।

आखिर कब तक हम ये झूठी सम्पन्नता के होड़ में पड़े रहेंगे जो हमसे हमारी हक़ीक़त हमारी पहचान अलग किये दे रही है।

जरा टटोलिये अपनी आत्मा को, झंझोड़िये अपने अंतर्मन को मुझे विश्वास है कि आपकी आत्मा भी कुछ अच्छा कर के बहुत खुश होती है आत्मसम्मान महसूस करती है।

तो फिर खुद को पहचानिये और इन मिट्टी के दीपकों पर भरोसा करिये घर के हर कोने को इनसे रोशन करिये , अरंडी के तेल से इन्हें जलाइये और वातावरण भी स्वच्छ करिये समाज के ढोंग को मिटाकर अपनी आत्मा को प्रसन्न करिये।

आपको चाहिये कि आप इस शुभ कार्य की शुरुआत खुद से करिये मुझे विश्वास है कि इस बार न सही तो अगली बार मोहल्ले वाले भी आपको देखकर उन झालरों का बहिष्कार करेंगे, अपनी जीवन में मिठाइयों का मिठास , और दूसरे के जीवन में खुशियों की आस भरेंगे।

मैं आखिर में कहूँगा -

"कि भूल कर इन विदेशी झालरों की झूठी रोशनी,

आ साथी आ भर दें गरीब मिट्टी के दीपकों में खुशियों की चाशनी......!!"


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