ओ कैलाशी



हे दीनों के दाता

ओ भाग्य विधाता

तुम ही हो सुखरासी


जो तू न चाहे तो

साँस भी अन्दर डग न भरे

रुक जाये कंपन ह्रदय का

जीवन आगे पग न धरे


तेरी ही करुणा के

सागर में हम जीवित हैं

हे अविनाशी


तेरे ही चक्षु हैं

जिसमें है सारी श्रष्टि बसी

तेरे ही कण्ठ में

विष मंथन का सारा व्याप्त है


हे देवों के देव

तुम महादेव

तुम हो कण-कण के वासी


तू जो न होता

तो मिट जाती ये धरती सारी

हो कोई भी काल

तू बन विकराल है सब पे भारी


ने नागों के धारी

हर दानव पे भारी

तुम हो घट-घट के वासी


तुमने ही धारा है

गंगा को अपनी जटाओं में

तुमने ही मान दिया है

चाँद को अपनी मस्तक-लताओं में


तुम पर है निर्भर

इस जग का हर एक वासी

तुम नाथ हो अनाथ के,  ओ कैलाशी

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